चरझनिया, गाँव वालों का सामूहिक जोड़ को भी दर्शाता है। गाँव में त्योहार हो या हो कोई सामाजिक कार्यक्रम, चरझनिया की एक ख़ास भूमिका होती है। चरझनिया के निर्माण की ज़िम्मेदारी गाँव वालों के पास ही होती है, जिसके अंतर्गत गाँव के सामूहिक जीवन में उपयोग होने वाली वस्तुओं को एक जगह एकत्रित किया जाता है। एक तरह से, आज की भाषा में, चरझनिया को एक सामूहिक बैंक के रूप में भी समझा जा सकता है। चरझनिया सिर्फ़ एक सम्पत्ति ही नहीं है, यह एक सामूहिक वादा भी है - 'समय अच्छा हो या बुरा, गाँव में सब एक साथ ही हैं'।
छत्तीसगढ़ के नगरी ब्लॉक में, एक छोटा सा गाँव है डोकाल, जहाँ इस चरझनिया के अंतर्गत ग्रामवासियों ने धान को संजो के रखने का काम किया है। यह एक बीज बैंक जैसा है। इस गाँव में धान के बीज बैंक बनने से पहले अनाज कि उपलब्धता को लेकर संघर्ष हुआ करता था। खाने तक के लिए पर्याप्त अनाज नहीं था। अनेकों समस्याएँ थीं और उस समय गाँव भी बहुत छोटा था। गाँव में जीवन का गुजर-बसर का जरिया तो खेती ही था पर फसल की उपज इतनी नहीं थी कि कुछ अनाज बचा कर भी रखा जा सके। गाँव में सामाजिक कार्य या सम्मेलन करने लायक भी धान नहीं हो पाता था।
डोकाल ने एक समय ऐसा भी देखा है जब गाँव के कुछ घरों में खाने का दाना नहीं बचता था तो दूसरों के घरों से माँगना पड़ता था। अगर गाँव में कोई सामाजिक कार्य या भोज करना होता था तो दूसरे गाँव से धान का बड़ही (उधार) लिया जाता था।
इन सारी समस्याओं को देखते हुए गाँव के बड़े-बूढ़े लोंगो ने यह समाधान निकाला कि अब डोकाल में गाँव के सभी लोग मिल कर धान का बीज एकत्रित करेंगे। और उस सामूहिक निर्णय के बाद से सभी परिवारों ने एक-एक किलो धान जमा करना शुरू किया। जिसके घर में रखने की जगह होती, उसी के घर में गाँव के लोग अपने-अपने हिस्से का धान एकत्रित कर के जमा कर देते थे। यह बीज बैंक 'चरझनिया धान' कहलाने लगा। अगर किसी परिवार में शादी या अन्य किसी सामाजिक कार्य के चलते अनाज की ज़रुरत आ पड़े तो वह परिवार इसी बीज बैंक से धान उधार ले सकता है। अपेक्षा यही होती है कि, एक साल के अंतराल में उधार लिया हुआ धान जमा हो जाए।
इस तरह, हर साल 'चरझनिया घर' का हिसाब किताब होता है। अगर एक साल में धान का बीज अपेक्षा अनुसार अधिक जमा हो जाए तो कुछ धान गाँव के सामाजिक समारोह में लगा दिया जाता है। अगर कोई सामाजिक समारोह ना हो तो गाँव में लोग आपस में ही बाँट लेते हैं।
डोकाल में बीज बैंक बने एक पीढ़ी बीत गयी है। अब गाँव में तीन पीढ़ी के लोग धान जमा करने लगे हैं। पहले सिर्फ़ बूढ़े लोग ही जमा किया करते थे, अब महिलाएं और जवान पुरुष भी करने लगे हैं। गाँव में एक साथ तीन पीढ़ियों के धान जमा होने के कारण कभी-कभी जगह की कमी पड़ जाती है। इसीलिए सन् 1997 में चरझनिया घर का निर्माण किया गया। इससे ग्राम वासियों द्वारा दिए गए सारे धान को एक ही स्थान पर जमा किया जाने लगा। इस चरझनिया घर पर भी ठीक पहले जैसे नियम ही लागू होते हैं। प्रत्येक वर्ष उसी तरीके से धान जमा होता है एवं सामाजिक कार्यों में इसी धान का उपयोग होता है।
गाँव के लोगों का तो यहाँ तक कहना है कि, यदि गाँव में दो साल तक खेती न किया जाये तब भी गाँव में अकाल (भुखमरी) नहीं आ सकती है। लोगों ने मुश्किल समय को ध्यान में रखकर ही इस बीज बैंक का निर्माण किया है। बीज बैंक बनाने के बाद गाँव में धान को लेकर सारी समस्याएँ समाप्त हो गयी हैं। इस गाँव के लोग अब दूसरे गाँवों से धान उधार नहीं मांगते। ये सिलसिला बंद हो गया है, अब तो इसके उलट यदि अगल-बगल किसी गाँव में धान की ज़रूरत होती तो यहीं से दिया जाता है।
इस बीज बैंक के होने से हमारे गाँव के लोगों का मनोबल भी बढ़ा है। हमें लगता है कि, हम अकस्मात होने वाली किस भी समस्या का निपटारा कर सकते हैं। हमें किसी पर निर्भर होने की ज़रुरत नहीं है, इस बीज बैंक ने हमें आत्मनिर्भर बना दिया है।
हमारी आत्म निर्भरता एकल नहीं है, जो सिर्फ़ खुद के हित का ही सोचे। हमारी आत्म निर्भरता हमारे अपने लोगों के संगठन में है, हमारे संगठित रिश्तों में है। कोरोना महामारी के प्रकोप से, हर तरफ़ लोगों में डर था। किसी ने इस तरह की महामारी पहले कभी नहीं देखी थी, तो कुछ समझ में भी नहीं आ रहा था। लॉकडाउन से भी पहली ही बार ही सामना हुआ। पता नहीं था कि, कब तक सरकार हमें घरों में ही रहने का निर्देश देगी। ऐसे में कई तरह के डर थे, पर एक बात स्पष्ट था, हमारे गाँव के अपने बीज बैंक की वजह से हम आहार के निश्चिंत थे। इसलिए नहीं कि, सरकार ने लॉकडाउन के समय राशन का वितरण ज़ोरो से किया, बल्कि इसलिए कि अगर सरकार ऐसा ना भी करती तो भी हमें कोई कष्ट नहीं होता। हमारे गाँव में कोई भूखा नहीं रहता, हमारे लिए आत्मनिर्भरता के मायने यही है। हमारी आत्मनिर्भरता हमारे अनाजों और जंगलों से है, और इन्हीं में हमारी आत्मा भी बस्ती है।
लेखक का परिचय :– ललिता सूर्यवंशी ग्राम डोकाल की रहने वाली हैं। वे आंबेडकर यूनिवर्सिटी, दिल्ली में शोधकर्ता के रूप में काम करती हैं और कई सालों से चिन्हारी की सदस्य रही हैं।
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