आदिवासी अपने हस्तकलाओं के लिए पूरी दुनिया में प्रचलित हैं। अनेकों लोगों के लिए तो उनकी कला ही जीविका का आधार होती है। कई गाँवों में एक-दो परिवार दिख जाएंगे जो किसी न किसी कला के जानकार होते हैं। ऐसा ही एक परिवार कोरबा जिला के ग्राम पंचायत राजकम्मा में निवास करता है, ये लोग रीवा जिला के रहने वाले हैं। यहाँ ये एक छोटी सी झोपड़ी बनाकर रह रहें हैं, और यहीं से बाँस से बनी अनेक प्रकार की वस्तुओं को बनाकर बेचते हैं। बांस से ये सुपा, पर्रा, धुकनी, घमेला (झाहुआ), और टुकनी बनाते हैं। बांस से दरवाज़े पर लगाने के लिए मुखौटे एवं खिलौना आदि भी बनाया जाता है। बातचीत करने पर ये बताते हैं कि जब त्यौहार या शादी विवाह का मौसम होता है तो 1 दिन में लगभग दो सौ टोकरियां बिक जाती हैं और उनका घर इसी से चलता है।
विभिन्न वस्तुएं बनाने के लिए बांस के विभिन्न मोटाई और चौड़ाई की तीलियाँ छीली जाती हैं, बांस की पतली तीली सरई कहलाती है जबकि चौड़ी पट्टी को बिरला कहा जाता है। एक विशेष किस्म की छुरी से बांस को छीला जाता है, पहले लंबी-लंबी पट्टियां निकाली जाती हैं फ़िर उन्हें और भी छील कर पतला किया जाता है। इन पट्टीयों और छीलन को रंगा जाता है और क्रॉस करते हुए बास्केट या टोकरी का रूप दिया जाता है। कोरबा जिले के अधिकतर ग्रामीण शादी विवाह आदि में बांस से बनी वस्तुओं का प्रयोग करते हैं।
छत्तीसगढ़ के आदिवासी जीवन में बांस के पौधे का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। खेत खलिहान से लेकर घर-आँगन तक, चाहे घर बनाना हो, घरों को सजाना हो, कृषि कार्य करना हो, शिकार करना हो, अनेक कार्यों में बांस से बनी वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है। बांस के प्रयोग से स्थानीय स्तर पर रोज़गार के अनेक अवसर पैदा किया जा सकता है।
आज कल लोग पहले की तरह रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में बांस की टोकरी का इस्तेमाल नहीं करते हैं, पहले घरों में फल-फूल रखने, रोटी रखने, और शादी में उपहार आदि पैक करने के लिए टोकरियों का ही इस्तेमाल हुआ करता था। बांस के उत्पादन में भी धीरे-धीरे कमी आ रही है, गाँवों में अब बांस के पौधे कम होने लगे हैं। बांस प्लास्टिक का बेहतरीन विकल्प है, बोतल से लेकर झाडू तक हम प्लास्टिक से बने अनेक चीज़ों का इस्तेमाल रोज़ाना करते हैं। प्लास्टिक से पर्यावरण को बहुत अधिक नुकसान होता है, प्लास्टिक की ज्यादातर चीज़ों को बांस से भी बनाया जा सकता है और इससे पर्यावरण को भी नुकसान नहीं होगा। सरकार को बांस के आधार पर कुटीर उद्योग को बढ़ावा देना चाहिए, यदि मांग बढ़ेगा तो उत्पादन भी बढ़ेगा। इससे आदिवासियों को भी रोज़गार के लिए कहीं बाहर नहीं जाना पड़ेगा।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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