आज़ादी के 75 साल बाद भी पत्थर बेच कर जीवन जीने को मजबूर हैं कोरबा के आदिवासी
- Shubham Pendro
- May 8, 2023
- 3 min read
Updated: May 11, 2023
पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित
आदिवासी समुदाय ज्यादातर जंगलों से प्राप्त चीजों को इकट्ठा कर, उसे बेचकर अपना जीवन-यापन करते हैं। हमारे क्षेत्र के आदिवासी जंगलों में अपना घर बना कर रहते हैं। जहां विभिन्न आदिवासी समुदाय निवास करते हैं और जंगलों में ही रह कर अपना जीवन-यापन करते हैं। और आज हम बताएंगे आदिवासियों के जीवन के बारे, तो आइए जाने हमारे क्षेत्र के आदिवासी अपना जीवन-यापन करने के लिए, क्या कार्य करते हैं? हम बात कर रहे हैं, कोरबा जिले के उस क्षेत्र के बारे में जंहा 50% से अधिक आदिवासी बसे हुए हैं। जो कड़ी मेहनत कर, अपना जीवन जीते हैं। करगामार क्षेत्र में रहने वाले आदिवासी पत्थर बेच कर अपना जीवन चलाने में सक्षम हो रहे हैं।

आप सबको सुनने में थोड़ा अटपटा जरूर लग रहा होगा कि, हमारे क्षेत्र के आदिवासी अब पत्थर निकाल कर अपना जीवन-यापन कर रहे हैं। क्योंकि, हम आदिवासियों के पास दूसरा कोई भी रोजगार का साधन नहीं है। जिससे, हम अपने परिवार का पालन पोषण कर सकें। अपने जीवन और अपने परिवार को चलाने के लिए, हम आदिवासियों को कुछ ना कुछ करना जरूरी है। इसलिए, हम जमीन से पत्थर निकालने का काम करते हैं। आप सभी के मन में ख्याल आ रहा होगा कि, आजकल तो गांव में रोजगार गारंटी के तहत ऐसे बहुत से काम आते हैं। लेकिन, हम आपको बता दें कि, गांव में चलाए जाने वाला काम एक महीने में ही ख़त्म हो जाता है। फिर हमें दूसरा काम ढूंढना पड़ता है। पत्थर निकालने का काम, हम कई सालों से करते आ रहे हैं और उन पत्थरों को बेचकर, हम अपने घर का खर्च निकलने में सक्षम होते हैं। और हम कई सालों से हमारे क्षेत्र में इसी काम पे निर्भर हैं।
कोरबा जिला से 80 किलोमीटर के दायरे का सम्पूर्ण इलाका आदिवासियों का है। जहां के आदिवासी, अपने रोजमर्रा की जिंदगी को चलाने के लिए जमीन से पत्थर निकालने का काम करते हैं। चूँकि, इन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी पढ़ाई-लिखाई नहीं कर पाते हैं। वे ज्यादातर समय जंगलों में ही रहते हैं। वे जंगलों से प्राप्त चीजों को इकट्ठा कर, उसे बेच कर अपना जीवन चलाते आये हैं। लेकिन, पहले के दौर में और अभी के दौर में जमीन-आसमान का अंतर देखने को मिल रहा है। पूर्व में, जंगल बहुत ज्यादा घने होने के कारण, आदिवासी जंगलों पर ही निर्भर रहा करते थे। लेकिन, अब जंगलों के नष्ट हो जाने से, जंगलों पर निर्भर नहीं रह पाते।
पहले, आदिवासी जंगल से बांस इकट्ठा कर टोकरी, शुपा और तरह-तरह के चीजें बनाकर, गांव-गांव और शहरों में बेचकर, अच्छी खासी आमदनी कर लेते थे। उन्हें रोजगार ढूंढने के लिए दर-दर भटकना नहीं पड़ता था। लेकिन, अब स्तिथि ऐसे हो गई है कि, जंगलों से कुछ भी मिल पाना संभव नहीं हो रहा।

अगर मैं, अपने इलाके के आदिवासियों के बारे में बात करूं, तो यहाँ के आदिवासी थोड़ा-बहुत सभी काम करने में सक्षम हैं और वे थोड़ा-बहुत पढ़े-लिखे भी हैं। जिन्हें, आसानी से रोजगार मिल जाता है। लेकिन, हमारे क्षेत्र के बैगा जनजाति के लोग, बचपन से ही मेहनत का काम करके अपना जीवन चलाते आ रहे हैं। चूँकि, ये पढ़ाई-लिखाई करने में हमेशा पीछे रहते आ रहे हैं। और इनकी आने वाले पीढ़ी भी उन्हीं की तरह पीछे होते चली जा रही है। बैगा आदिवासियों को समझा पाना बहुत ही मुश्किल काम है। ये दूसरे क्षेत्र के आदिवासियों से बात करने में भी झिझकते हैं और संभवता डरते भी हैं। क्योंकि, वे आज भी जंगलों में निवास करते हैं और उन्होंने बाहर की दुनिया नहीं देखी है। जिसकी वजह से वे अन्य आदिवासी समुदाय से बात करने में डरते हैं।

पोंडी ब्लाक के अंतर्गत आने वाला ग्राम धनरास क्षेत्र के 27 वर्ष के निवासी प्यारेलाल, जो एक आदिवासी हैं। उन्होंने हमें बताया कि, वे जमीन से पत्थर निकलने के बाद, उसे बेच कर अपना जीवन चला रहे हैं। वे आगे बताते हैं कि, “हम आदिवासी ज्यादातर पेड़-पौधे और जंगलों पर निर्भर रहते हैं। लेकिन, कुछ समय से पेड़ों की अंधाधुंध कटाई के वजह से, जंगलो से हमें अपने लिए उपयोगी वस्तुएं प्राप्त नहीं हो रही हैं। जो हमारे दैनिक जीवन के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण थे। जिन्हें हम दूसरे क्षेत्रों में बेचकर, उससे कुछ आमदनी कर लेते थे और हमारी आर्थिक स्थिति में सुधार होता था। लेकिन पूँजीवाद के दौर में, जंगलों के अंधाधुंध कटाई से पेड़-पौधे से उपयोगी वस्तुएं प्राप्त नहीं हो पाती। जिससे, हमें रोजगार ढूंढने के लिए दर-दर भटकना पड़ता है।”
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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