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Writer's picturePankaj Bankira

सारकेगुड़ा नरसंहार के दशकों बाद भी पीड़ित लगा रहें न्याय की गुहार

ग्यारह साल पहले, आज ही के दिन वर्ष 2012 में बीजापुर के सारकेगुड़ा में 17 निर्दोष आदिवासियों को पारा मिलिट्री की सीआरपीएफ और छत्तीसगढ़ सरकार की राज्य पुलिस ने फर्जी मुठभेड़ में मौत के घाट उतार दिया था। जिसके अगले दिन देश के तमाम मीडिया चैनल्स में इस खबर को सनसनी के तौर पे दिखाया गया कि, नक्सलियों के उप्पर बड़ी कारवाई हुई है और नक्सलियों की कमर तोड़ दी गयी है। साथ ही यही खबर देश के तमाम अखबारों में छपी। और तत्कालीन मुख्यमंत्री रमन सिंह और देश के तत्कालीन गृह मंत्री पि. चिदंबरम ने सुरक्षा जवानों की पीठ थपथपाई थी। और इस घटना के बाद सारकेगुड़ा में सीआरपीएफ की एक कैम्प स्थापित की गयी।

पुलिस और सेना ने अपनी-अपनी रिपोर्ट में दवा किया कि, यह मुठभेड़ सारकेगुड़ा के घने जंगल में हुआ था। जब वो क्षेत्र में गस्ती करने गए थे, तब उनपर नक्सलियों ने हमला किया और जवाबी कार्यवाई में उन्होंने 17 माओवादियों को मार गिराया। लेकिन, वास्तविकता में यह घटना खुले मैदान में घटी थी। जहाँ सारकेगुड़ा, राजपेंटा और कोट्टागुड़ा के ग्रामीण बीजा पुंडम त्यौहार को लेकर बैठकी करने के लिए एकत्रित हुए थे। घटना के बाद, तीनों गांवों के प्रत्यक्षदर्शियों ने स्वतंत्र पत्रकारों और समाज सेवियों को बयान देकर कहा था कि, पुलिस ने उनके लोगों को बुरी तरह से मारा-पीटा और सामने से गोली मारी। गोली मारने से पहले उनके लोगों को धारधार हत्यारों से मारा गया था।


इस घटना में मारे गए 17 आदिवासियों में से 7 नाबालिग बच्चे थे। मारे गए लोगों में सरस्वती (12), नागेश कका (15), रामविलास मड़कम (15), मल्ल कुंजम (17), मित्रा क्षामा (17), सुरेश इरपा (18), बिछुम कोरच (18), दिलीप मड़कम (22), मुन्ना इरपा (23), रमन्ना सरके (25) नागेश मड़कम (32), अयुत्थ मड़ावी (33), सुरेश मड़कम (35), दिनेश इरपा (35), समयया कका (35-40), धर्मायाः इरपा (40) और नारायण इरपा (45-50) थे। इनमें से 6 लोगों के ऊपर पुलिस द्वारा अलग-अलग तारीखों में इनपर पुलिस की गस्ती टुकड़ी पर जानलेवा हमला करने का आरोप दर्ज़ किया गया था। छत्तीसगढ़ में जो आदिवासी मुखर होकर अपनी बातों को कहते हैं, उनपर पुलिस टुकड़ी पर हमला करने का आरोप लगना आम बात है।


इस मामले पर मुखर होकर अपनी बात को उच्च न्यायालय के न्यायाधीश वी.के अग्रवाल ने वर्ष 2019 नवम्बर माह में अपनी रिपोर्ट पेश कर रखी। उन्हें तत्कालीन रमन सिंह की ही सरकार ने भारी विरोध और प्रदर्शनों के बाद मामले की जाँच करने के लिए नियुक्त किया था। उन्हें जाँच के दौरान पुलिस और फोर्स की ओर से उचित सहयोग प्राप्त नहीं हुआ, इस कारण उन्हें रिपोर्ट दर्ज़ करने में 7 वर्ष का लम्बा समय लगा। उनके रिपोर्ट पेश करने के बाद 3 दिसंबर 2019 को विधानसभा में इस मामले को लेकर काफी हंगामा हुआ। कांग्रेस की सरकार बनने से पूर्व इस नरसंहार को लेकर उन्होंने आदिवासियों को भरोसा दिया था कि, उनकी सरकार के आने पर वो दोषियों पर कड़ी कार्यवाई करेगी। लेकिन, अब तक भूपेश बघेल की सरकार द्वारा दोषियों के विरुद्ध एक भी एफआईआर दर्ज़ नहीं की गयी।

घटना के उपरांत जब क्षेत्र के लोगों ने बसुगोडा थाना में फ़र्ज़ी मुठभेड़ के विरुद्ध शिकायत दर्ज़ करवानी चाही थी तो, तब भी उनकी शिकायत दर्ज़ नहीं की गयी। और अब न्यायिक जाँच रिपोर्ट आने के 3 साल बाद भी कोई एफआईआर दर्ज़ नहीं की गयी। यह दर्शाता है कि, देश की सरकारें आदिवासियों के प्रति कितनी सहानभूति रखती है। चाहे बीजेपी हो या कांग्रेस, दोनों की सरकारों ने राज्य में आदिवासियों को न्याय दिलाने में कोई कार्य नहीं किया। आदिवासी बहुल राज्यों की सरकारें केवल पूँजीपतिओं और कॉर्पोरेट्स के हित को साधने के लिए कार्य करती हैं, उन्हें आदिवासियों के विकास से कोई लेना-देना नहीं होता है। चूँकि, आदिवासी जहाँ निवास करते हैं, वह स्थान प्राकृतिक सम्पदाओं से परिपूर्ण होता है। और आदिवासिओं को उनकी जमीनों से बिना बेदखल किये उन संसाधनों पर पूंजीपति कब्ज़ा नहीं कर सकते। इस कारण, आदिवासियों पर अत्याचार किये जाते हैं, उनके कत्लेआम होते हैं और सम्पूर्ण तंत्र मौन रहता है। मानो आदिवासियों का कोई मोल न हो इस देश में।


न्यायिक जाँच रिपोर्ट के आने के बाद राज्य के आदिवासी समूह और संगठन प्रत्येक वर्ष आज के दिन प्रदर्शन करते आ रहे हैं। लेकिन, आज तक किसी ने भी उनकी नहीं सुनी। पेसा कानून का भी कोई लाभ नहीं मिलता छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को। जहाँ स्पष्ट तौर पर ग्राम सभा को शक्ति दी गयी है। लेकिन, प्रशासन उसे ताक पर रखकर गांवों में पुलिस और सीआरपीएफ कैम्प को बिना ग्राम सभा की अनुमति के स्थापित कर देते हैं। और क्षेत्र के आदिवासियों को प्रताड़ित करते हैं। उन्हें नक्सली के नाम पर मार दिया जाता है। और देश की मीडिया उनके लिए कुछ नहीं करती, न सरकारों से सवाल करती है न ही आदिवासियों के पक्ष को रखती है। एक ओर देश की सरकार “सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास” का नारा देती है। और वहीँ दूसरी ओर देश के आदिवासियों के विरुद्ध अत्याचारों पर खामोश रहती है।


खामोश तो देश के अलग-अलग आदिवासी संगठन भी रहते हैं। वो केवल क्षेत्र विशेष के लिए आंदोलन करते हैं। यदि वर्तमान में, मणिपुर में हो रही हिंसा को लेकर सम्पूर्ण भारत के आदिवासी एकजुट होकर आंदोलन करे तो, देश की सरकार को घुटने में लाया जा सकता है। और ऐसा हुआ तो देश की सरकारें आदिवासियों के विरुद्ध फैसले लेने से दस बार सोचेंगी और देश के समस्त राज्यों में आदिवासियों पर हुए अत्याचार पर न्याय मिलने की कल्पना की जा सकती है। सारकेगुड़ा नरसंहार पर छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को अन्य राज्यों के आदिवासी संगठनों के समर्थन मिलने पर ही दोषियों पर कार्यवाई की उम्मीद की जा सकती है। क्योंकि, सारे सबूतों के सामने होने पर भी राज्य सरकार पूंजीपतियों के दबाब में कोई कार्यवाई नहीं कर रही है।


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