पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित
सरई का पेड़ हमारे लिए बहुत ही फायदेमंद और लाभप्रद होता है। इस पेड़ से हमें कई प्रकार के आवश्यक सामग्री भी प्राप्त होते हैं। हमारे गोंड जनजाति के लोग सरई के पेड़ को सरना देव के रूप में मानते हैं और इस पेड़ की पूजा-पाठ भी करते हैं। इसके पत्ते, फूल, लकड़ी और डागाली बहुत उपयोगी होते हैं। इसके डागाली से मिलने वाला धूप बहुत महत्वपूर्ण होता है, जिसे सरई धूप कहते हैं, जो हमारे पूजा-पाठ में काम आता है। और यह पेड़ हमारे गोंड जनजाति के लोगों के लिए बहुत ही आवश्यक एवं महत्वपूर्ण होता है। क्योंकि, इस वृक्ष से ही हमारे आदिवासी लोगों की कई प्रकार के आवश्यक सामग्री मिलते हैं।
जब गोंड आदिवासी समाज में विवाह होता है। तब सरई पेड़ और जमनी पेड़ के डागाली व खूंटा से मंडप तैयार होता है और चारों तरफ सरई का खूंटा गाड़ते हैं। और एक आंगन के बीचों बीच में सरई और महुआ का खूंटा गाड़ते हैं। महुआ का ही तीन पिढ़ा बनाते हैं, जिसे मांगरोहन कहते हैं और उसी में दुल्हन और दूल्हा बैठते हैं।सरई और जमनी के डगाल से बने मंडप को हमारे आदिवासी हरियर मंडवा कहते हैं और हरे-हरे सरई के पत्ते से पत्तरी दोना बनाए जाते हैं। और इसी दोना पत्तल में सभी मेहमान एवं घर वालों को खाना परोसते हैं। सरई के पत्ते से ही घर में जब कुछ त्यौहार होता है, तब इसी के पत्ते से बने दोना में घर के देवी-देवता के लिए पान प्रसाद चढ़ाते हैं। और इसके पतले डागाली से दातुन बनाया जाता है, जिसे हमारे गोंडी लोग मुखारी बोलते हैं। दातुन घिसने से दांत में पोला नहीं होता है। बल्कि, दांतो को सघन सटा कर रखता है।
सरई मुखारी का एक और विशेष कार्य होता है। जोकि, हमारे आदिवासी समाज के लिए बहुत ही आवश्यक एवम महत्वपुर्ण होता है। जब आदिवासी गोंड जनजाति के कोई भी व्यक्ति या नागरिक का किसी भी कारण वस मित्यु हो जाता है तो, इस सरई के दातुन का उपयोग नव दिन तक नहावन में, जो उराई बनाए रहते हैं। उसी में सरई मुखारी को गाड़ कर पानी देते हैं और दसवें दिन में सभी को तालाब या नदी में बहा देते हैं।
सरई पेड़ के पत्ते से दोना पतरी बनाते हैं, जिसमें भंडारा का खाना परोसा जाता है। और हमारे आदिवासी इसके पत्ते को सिलाई कर अच्छा आमदनी भी कमा लेते हैं। दोना-पत्तल को सुखा कर 200-300 का बंडल बनाकर रख दिया करते हैं। ताकि, जरूरत पड़ने पर काम आ सके।
सरई के फूल को महुआ त्यौहार में महुआ के साथ मिलाकर पकाते हैं और बहुत ही चाव से खाते हैं। यह खाने में बेहद स्वादिष्ट लगता है। सरई के फूल जब पक जाते हैं तो, इसे आदिवासी लोग जंगल झाड़ी से बिनकर लाते हैं और लाकर जलाते हैं। फिर इसके बीज को निकाल कर अच्छे दामों में बेच देते हैं। इसके बीज से खाद भी बनाया जाता है।
गांव के लोग ज्यादातर सरई का दातुन ही करते हैं। जिसे हम मुखारी कहते हैं, इससे दाँत मजबूत होता है और मुँह साफ रहता है। सरई पेड़ से हमें कई प्रकार के लाभ मिलते हैं। इस पेड़ से हमें धूप भी प्राप्त होता है। सरई पेड़ को छीलने से जो लासा निकलता है, वह इस पेड़ से मिलने वाला धूप है। इस लासा को ही सरई धुप कहते हैं। और अपने घर के लिए पूजा-पाठ कर होम धूप देते हैं। यह नियम हमारे पुरखों से चली आ रही है, जिसे हम बहुत ही महतत्त्वपूर्ण मानते हैं। सरई पेड़ को हमारे गोंड आदिवासी के लोग सरना देव के रूप में पूजा करते हैं। इसके पत्ते, लकड़ी, फूल, सरई धूप और सरई का दातुन का अलग-अलग तरीका से प्रयोग कर उपयोग किया जाता है।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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