मनोज कुजूर द्वारा सम्पादित
छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिला अंतर्गत आने वाले तिरागुडी़ जो एक आदिवासी बहुल क्षेत्र है। तिरागुडी़ एक गांव है, जहां फली की खेती सबसे ज्यादा होती है। तिरागुडी़ के रहने वाले आदिवासी समुदाय की महिला संत बाई जी से फली की खेती की विस्तृत जानकारी प्राप्त हुई। उनसे बातचीत के क्रम में पता चला कि, यहां फली (मूंगफली) की फसलें उगाई जाती हैं और उन लोगों को फली की फसलों से बहुत लाभ प्राप्त होता है।
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इस फसल को लगाने के लिए मई महीने में जुताई-बुवाई किया जाता है। इसकी खेती को करने के लिए अच्छे से जमीन की जुताई करनी होती है। इसके लिए दो से तीन बार जमीन की जुताई करना पड़ता है। उसके बाद जमीन में फली की बीज को पूरे जमीन में गिराया जाता है। फिर, 5 दिन के बाद जब बीज मिट्टी के ऊपर दिखने लगता है, उससे पता चल जाता है कि अच्छी तरह से फसल तैयार हो जाएगा और किसान लोग खुश होते हैं। क्योंकि, उन लोगों को अच्छे फसल के होने का भरोसा हो जाता है।
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किसानों को इसके बाद सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती है। क्योंकि, इसकी खेती करने के बाद पूरे महीने बारिश बीच-बीच में होते रहता है। फिर, इसकी फसल 3 महीने के बाद तैयार होने लगती है और चौथे महीने में निदाई-कुड़ाई के लिए तैयार हो जाती है। उसके बाद किसान लोग इसे बेच कर अपनी जरूरतों को पूरा करते हैं।
फली की खेती सभी गांवों के जमीनों में नहीं होती है जैसे कि गणेशपुर और बरबसपुर के गांव में फली की खेती नहीं होती है। क्योंकि, इन गांवों की जमीन फली के लिए उपयुक्त नहीं है। लेकिन तिरागुडी, मकर, बंधा, और कुदरिया गांव के जमीनों में किया जाता है। क्योंकि, यहाँ की जमीनें फली के लिए उपयुक्त होती हैं।
पवनपुर के आदिवासी अपनी भूमि पर अलग-अलग तरह की फसलें उगाते हैं। ये टमाटर, राहर, उड़द, उर्दी, मेंझरी, सावा, बऊजरा, झिलार, हिरुआ कुरथी, मिर्ची, भाटा, गोभी, आलू, आदि फसलें उगाते हैं। इस गांव की मिट्टी कुछ अलग प्रकार की है। इस गांव की मिट्टी थोड़ी कंकड़ और लाल रंग की होती है। इसलिए, इस गांव में अनेकों प्रकार के फसलें बोई जाती है। इस गांव के आदिवासी मौसम और समय के हिसाब तथा मेहनत और लगन से इन फसलों को लगाते हैं। जिससे अच्छी खासी आमदनी कमा लेते हैं, जिसे अपने क्षेत्रों या दूसरे क्षेत्रों के बाजारों में बेच देते हैं।
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इस गांव के आदिवासी जिनका नाम सपुरन सिंह टेकाम है। वह मेहनत और लगन से अपनी जिंदगी को सफल बना रहे हैं। इस गांव में कोदो, मेंझरी की बिक्री बहुत होती है। क्योंकि, दूसरे जिले और क्षेत्रों में इसकी अधिक मांग है। कोदो, मेंझरी को आदिवासी लोग अपनी खेतों में खेती करते है। इसे शहरों के बड़े-बड़े अमीर लोग भी उपयोग करते हैं। जो इंसान चावल रोटी नहीं खा सकता है, वे व्यक्ति कोदो और मेंझरी का सेवन करते हैं। जिस व्यक्ति को शुगर का बीमारी होती है, वह व्यक्ति दाल चावल का उपयोग नहीं कर सकता है। ऐसे में उस व्यक्ति को कोदो और मेंझरी की जरूरत पड़ती है। इस प्रकार से सरगुजा के आदिवासी सब्जियों और फली को बेचकर अपना जीवन-यापन करते हैं।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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