पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित
छत्तीसगढ़ में, छत्तीसगढ़ी भाषा का उपयोग सबसे ज्यादा किया जाता है। और छत्तीसगढ़ी भाषा के, कई अर्थ भी निकलते हैं। छत्तीसगढ़ में, प्रत्येक किसान को ‘चीला रोटी’ के बारे में पता है। क्योंकि, इस रोटी को हर किसान के घर बनाया जाता है। आदिवासी, एक खास दिन, धान को दान भी करते हैं, साथ ही चीला रोटी को बनाया जाता है। जिसे, नारियल प्रसाद के साथ, सभी को बांटा जाता है। जिसे गांव के आदिवासी किसान, अपने धान इक्कठा कार्य को खत्म कर, अंतिम दिनों में करते हैं।
छत्तीसगढ़ के आदिवासी किसान, प्रारंभ से ही खेती का काम करते हुए आ रहे हैं। और पूरे साल भर तक, खेती का कार्य होते रहता है। बहुत कम होता है, जब किसान खेती के कामों से दूर रहता है। जहाँ दो फसली खेती होती है, वहाँ के किसान तो साल भर खेती करते हैं। उन्हें, कभी आराम का मौका ही नहीं मिलता। कुछ इलाके ऐसे हैं, जहाँ दो फसली के लिए, पानी की सुविधाएं उपलब्ध नही है। वहाँ के किसान, कुछ महीने के लिए खेती से दूर हो जाते हैं। धान की फसल का अंतिम कार्य, मिसाई करना होता है।
जब मिसाई का अंतिम दिन होता है। उस दिन किसान, वहाँ आये सभी लोगों को धान की ‘दान’ देते हैं। चाहे, कोई छोटा रहे या बड़ा। यहाँ तक कि, बच्चों और महिलाओं को भी, इस दिन ‘धान’ दान करते हैं। कहा जाता है कि, इस दिन दान करने से, दान करने वाले किसान कि, ‘धान’ कभी कम नही होती है। इस दिन, किसान, धान की पूजा के साथ मिसाई को सम्पन्न करते हैं, और चावल के आटे की ‘रोटी’ बनाई जाती है। जिसे, छत्तीसगढ़ के आदिवासी, ‘चीला रोटी’ कहते हैं। और अपने आस-पास के लोगों को नारियल के प्रसाद के साथ इस रोटी को बांटते हैं।
देवता के लिए बनाई जाती है, भुसे की रोटी
गांव के सभी लोग, बुढ़वा रक्सा देवता को मानते हैं। इसलिए, जब गांव का कोई व्यक्ति, धान मिसाई के कार्य को समाप्त करता है। तो, पूजा जरूर करता है। उसी दिन, बुढ़वा रक्सा देवता के लिए, धान के भुसे की रोटी बनाई जाती है। जिसे, सरई के पत्तों में बनाया जाता है और ‘पैरा’ में देवता के लिए, इस भुसे की रोटी को, छुपा दिया जाता है।
परिवार और गांव के लोगों को खाने पर दिया जाता है निमंत्रण
किसान, धान की मिसाई कर, सभी धान को ‘कोठी’ में भर कर, इस काम की समाप्ति की खुशी में, अपने परिवार सहित गांव के कुछ लोगों को, खाने के लिए आमंत्रित करते हैं। इस दिन भजिया, बड़ा और मुर्गी-मछली आदि कुछ विशेष पकवान बनाये जाते हैं।
ग्राम डोंगरी के बद्रीनाथ, जिनकी आयु 60 साल है। वे कहते हैं कि, “पहले जब थ्रेसर मशीन नही था। तो, सभी बैल से धान की मिसाई करते थे। उसके बाद धान को, सभी अपने कोठार (धान रखने का बाड़ी) में रखते थे। लेकिन, अब तो थ्रेसर मशीन के होने से, किसान, खेतों में ही मिसाई करवा लेते हैं। और सीधे बोरी में भर कर, घर या मंडी ले जाते हैं। पहले, सरकार द्वारा धान नहीं मिलता था। तो, उस समय, धान की उपज भी कम थी। किसानों को आज की तरह, आधुनिक तौर से खेती करने का तरीका पता नहीं था। इसलिए, पहले धान भी कम होती थी। तो, अधिकतर लोग इस दिन, धान की ‘दान’ लेने के लिए, उनके घर पहुंच जाते थे। लेकिन, अब तो खुद के धानों को रखने के लिए, समय नही मिलता है। इसलिए, अब बहुत कम लोग ‘धान की दान’ लेते हैं।”
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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