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Writer's pictureMukhiya Oraon

आदिवासियों में सेंदरा, क्यों किया जाता है?

पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित


आदिवासियों में सेंदरा खेलने की प्रथा बहुत लम्बे समय से चली रही है और यह आज भी कायम है। हम में से बहुत से लोगों ने सेंदरा किया भी होगा या नाम तो सुना ही होगा। हमारे आदिवासी समाज में शिकार (कुरुख में सेंदरा) तीन प्रकार के होते हैं। पहला, सेंदरा, जो पुरषों के द्वारा किसी भी समय, किसी भी दिन, जंगलों में जंगली जानवरों को मार कर किया जाता है। दूसरा, जानी शिकार, इसमें महिलाएं, लडकों या पुरषों के कपड़ा पहन कर शिकार करने जाती हैं। यह हर 12 साल में एक बार आता है। जानी शिकार रोहतासगढ़ से शुरू हुआ, जो आज तक चलाता आ रहा है। यह महिलाओं की वीरता को दर्शाता है। और तीसरा, बिशु सेंदरा, यह फागू-चंदो (होली) से ठीक 15 दिन पहले होता है, इसमें पुरुष और जवान, जंगलो में शिकार खेलने जाते हैं। जिस दिन पुरष शिकार में जाते हैं, उस दिन महिलाएं साफ़-सफाई और नहाना आदि सब करती हैं। लेकिन, जब तक पुरुष शिकार से वापस नहीं आ जाते, तब तक, वो न ही नहाती हैं और न हीं कोई सिंगार करती हैं। इन 15 दिनों में, पुरुष जंगलों में रह कर, जंगली जानवरों का शिकार करते हैं। और घर में औरतें पूजा-पाठ करती हैं। ताकि, उनके पति या भाई या बेटा सुरक्षित रहें और अच्छा शिकार कर के, घर वापस लौट आएं।

सेंदरा के लिए तैयार ग्रामीण (फोटो सौजन्य: सोनराज उरांव)

इन 15 दिनों में, पुरुष जानवरों का शिकार कर जंगलों में ही हरी पत्तों और जंगली फलों को खाकर जीवित रहते हैं। शिकार के साथ-साथ जंगल में, पत्थर के बने हथियार तथा तीर-धनुष की प्रतियोगिता भी होती है। और जिसका निशना अच्छा होता है, उसे उपहार में अच्छे किस्म का मीट दिया जाता है। 15 दिनों के बाद, पुरुष शिकार से घर आते हैं। महिलाएं, शिकार से आये पुरषों का स्वागत (परछती) करती हैं और उनके आने की ख़ुशी में शिकार किया हुआ मीट और चावल-रोटी (गोरगोरा रोटी) बनाकर खाया जाता है।

सेंदरा से लौटते हुए (फोटो सौजन्य: सोनराज उरांव)

बिशु सेंदरा, आदिवासियों के संस्कृति का हिस्सा है। जो आज खत्म होने के कगार में है। ये आज भी दूर-दराज के गाँवो में मनाया जाता है। आज की पीढ़ी इसे भूल चुकी है और अपनी संस्कृति को छोड़ कर, गैरों की संस्कृति को अपना रही है।

सेंदरा किये गए जानवर (फोटो सौजन्य: सोनराज उरांव)

आदिवासियों में सेंदरा का महत्व


सेंदरा आपसी मेल-जोल के साथ ही भाईचारा को बड़ावा देता है। इसके अलावे, आने वाले पीढ़ी को भी शिकार खेलने के लिए तैयार करती है, और साथ-ही-साथ प्रत्येक को अपना हुनर दिखाने का मौका भी देती है। इसको प्रमुखता से मनाने का कारण यही रहा होगा कि, आदिवासी अपनी फसलों की रक्षा, इन जंगली जानवरों से कर सकें और आस-पास के गाँव में, इन जंगली जानवरों को आने से रोका जा सके। सेंदरा में, आज-कल छोटे जानवरों का शिकार किया जाता है। जैसे खरगोश, चूहा और पंक्षियां आदि। आदिवासी समाज हमेशा से जानवरों और प्रकृति से संतुलन बनाते आया है। सेंदरा का उद्देश्य, ये कभी नहीं रहा होगा कि, सभी जानवरों को मार कर खत्म करें। अपितु, उनकी आबादी को संतुलन में रखना रहा होगा। आज दिन-प्रति-दिन जंगल कम होते जा रहे हैं और आदिवासी काम के तलाश में, शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। जिस कारण, यह पहले की तरह हर्षोल्लास के साथ नहीं मनाया जाता है। परन्तु, यह आज भी गाँव में हर साल मनाया जाता है और इस तरह आदिवासी अपनी संस्कृति को बचाये रखे हुए हैं।


लेखक परिचय: वर्तमान में सीमा सुरक्षा बल में अपनी सेवा दे रहे हैं और साथ-ही-साथ आदिवासी कला, जीवन और संस्कृति के बारे में लिखने में रूचि रखते हैं। ये आदिवासी लोक-गीतों को गाने के साथ ही लिखने का भी शौक रखते हैं।

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