पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित
सादियों से गण्डजीव, कोयामुरी द्वीप में, एक वैभव शाली विरासत, समृद्ध-सम्पन्न परम्पराओं व संस्कृति की एक अलग पहचान, कोया पुनेम कोप निवासियों की रही है। गोंडवाना में, अनेक युग पुरुष हुए, जिन्होंने गोंडी गोंदला (समुदाय) को मार्गदर्शन दिया है। जिनमें, अनेक मातृ शक्ति, मुठवा और लिंगों भी हुए। जिनमें, अपने समय में जनकल्याण के लिए एवं समाज के प्रति सेवा दर्शन के भाव, परिलक्षित होती है। जिसमें, भिमाल पेन की जीवनशैली, समस्त गोंडवाना सगा समाज की चौथे मुठवाल (गुरु) कुंवाराराल लिंगों (भिमसन) के रुप में सेवा जोहर करते हैं।
कोया वंशीय, गोंड समुदाय के गण्डजीव, 'भिमाल पेन' की उपासना, चैत्र माह की पूर्णिमा में करते हैं। उक्त दिन, सभी ग्राम वासी, भिमाल पेन की ठाना में जाकर, उनकी साफ-सफाई करते हैं। स्वच्छ जल से, भिमाल पेन को धोकर, उन्हें सिंदूर से रंगते हैं। उनके समक्ष, संव्वा पायली जवारी रखकर, उन पर कलश रखते हैं, जिसे घट स्थापना कहा जाता है। घट स्थापित करने का यह कार्यक्रम, चैत्र पूर्णिमा की अर्ध रात्रि को किया जाता है। उस दिन गांव के सभी लोग, अपने-अपने घरों से पूजा का सामान ले जाकर, उनकी पूजा करते हैं। दूसरे दिन, भिमाल पेन की पूजा करके, घट (दीप) को सरोवर में विसर्जित करते हैं। उसी तरह, सभी मिलकर वर्गानी (धन) जमा कर और बकरा लेकर भी भिमाल पेन को बलि चढ़ाते हैं। जिसका प्रसाद, सभी को वितरित किया जाता है। उस दिन, सभी लोग, भिमाल पेन ठाना में खाना पकाते हैं और नैवध चढ़ाकर, शाम को खाना खाने के बाद, घट विसर्जित करते हैं। भिमाल पेन का मुख्य ठाना, "पेन्क" नदी किनारे, सुयाल मेट्टा में है। वहां, सव्वा महीने तक, घट प्रज्वलित कर रखा जाता है। जिसके दर्शन करने, सभी लोग अपनी सुविधा के अनुसार जाते हैं।
कुवारा भिमाल पेन की उपासना करने के पीछे, कोया वंशीय गोंड समुदाय के गण्डजीवों में, उनकी ऐतिहासिक प्राचीन गाथा प्रचलित है। प्राचीन काल में, भिमाल नामक, एक ऐसा योग सिद्धि प्राप्त शूरवीर और बलशाली महापुरुष, गोंड समुदाय के मड़ावी गोत्र में, चैत्र पूर्णिमा के दिन जन्म हुआ था। वह मध्य प्रदेश के मैकाल पर्वतीय मालाओं के, तराई में स्थित (बय्यर) लांजी के निवासी, भूरा भूमका और कोतमा दाई के पुत्र थे।
कोया वंशीय, गोंड समुदाय के गण्डजीवों की सेवा करने हेतु, उन्होंने अपना लोन (घर) त्याग दिया था। उनके छह भाई और पांच बहनें थी। जटाबा, केशो, हिरबा, बाना, भाजी, मुकोशा और भिमाल सात भाइयों के नाम थे। और पंडरी, पुंगार, मुंगूर, कुशाल और खैरो दाई, पांच बहनों के नाम थे। भिमाल पेन के, इन सभी भाई-बहनों ने, कोया वंशीय गोडीं गण्डजीवों की सेवा करने हेतु, अपना सर्वस्व त्याग दिया। और उनका सेवा कार्य, आज भी चीरकालिक रूप से जिंदा है। भिमाल पेन ने, नार-नाटे (गांव -गांव) में जाकर, कसरत रोन अर्थात गोटूल रूपी व्यायाम केन्द्र स्थापित कर, उसमें कोयावंशीय गण्डजीवों को बड़गा, बिलाम्ब (धनुषविघा), मल्ल, मुष्टी और कुस्ती आदि हुनर सिखाने का कार्य किया। उसी तरह अपने 'तंदरी जोग शक्ति' से, सभी के दुखों को जानकर, उनकी मदद किया करते थे। वह अपने योग शक्ति के बल पर, मूसलाधार वर्षा भी बरसाया करते थे। इसलिए, उन्हें पानी का देवता भी कहा जाता है।
दोनों जटाबा और हिरबा, ताल-तलय्या बांधने के कार्य में माहिर थे। केशो और बाना, कृषि विद्या में निपुण थे। भाजी और मुंकोसा, रास्ते बनाने के कार्य में कुशल थे। उसी तरह, उनकी बहनें, पंढरी और पुंगार, सहकारिता के तत्व पर, हर गांव में अनाज भंडार बनाने का मार्गदर्शन किया करतीं थी। मुंगुर और कुशाल, ग्राम एवं निवास बनाने के कार्य में, मदद किया करतीं थी। और शीतला अथवा माता दाई, बैगा अर्थात वेद शास्त्र में निपुण थीं। वह, सभी ग्राम वासियों की औषधि उपचार द्वारा सेवा का कार्य किया करती थी। "माता दाई का 'ठाना' गांव की पुर्व दिशा में होती है और इसके आस-पास भिमाल पेन का स्थान होता है। ऐसा कहा जाता है कि, भिमाल पेन के जमाने में, गण्ड द्वीप के, सभी कोया वंशीय गोंड जीव, अमन चैन से रहा करते थे। इसलिए, उनकी उपासना आज भी की जाती है।
भिमाल पेन, कोयतुर (आदिवासी) क्षेत्रों में, हर नार-नाटे में खैरो दाई के गुडी में विराजमान हैं। आप को बता दें कि, आदिवासी अपने पुरखों की या अपने इष्ट पेन शक्तियों की पूजा, प्रकृति के सम्मत होती है। जिसमें पेड़, पहाड़ और पर्वत आदि को पूज्यनीय मानते हैं। आदिवासी मूर्ति पुजा नहीं करतें हैं। आदिवासी समुदाय, अपने इष्ट देव के रूप में, लकडी या पत्थर को मानते हैं। हर गांव, अपने तौर-तरीकों और रिति-रिवाज़ से "भिमाल पेन" को मानते हैं। जानकारी के आभाव में, उसे भीमसन या भिमसेन भी कहते हैं। लेकिन, वे कुवारा भिमाल पेन ही हैं। भिमाल पेन शादी-शुदा नहीं हैं। इसलिए, उन्हें कुवारा भिमाल पेन भी कहते हैं।
नोट: इस लेख को 'पारी कुपार लिंगों, गोंडी पुनेम दर्शन' से लिया गया है।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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