आइए इस लेख से, आपको झारखण्ड राज्य के दुमका जिले के सबसे बडे़ राजकीय मेला, 'हिजला मेला' से अवगत कराते हैं। हिजला मेला का आयोजन, झारखण्ड की उप-राजधानी दुमका जिले के हिजला नामक ग्राम में होता है। दुमका जिला संथाल परगना के अंतर्गत आता है और यह संथाल बहुल क्षेत्र है। यह राजधानी रांची से, सड़क मार्ग से लगभग 275 किलोमीटर की दूरी पर है। संथाल परगना प्रमंडल में दुमका, जामताड़ा, गोड्डा, देवघर, साहिबगंज एवं पाकुड़ सहित 6 जिले आते हैं एवं इस प्रमंडल का मुख्यालय भी दुमका ही है।
झारखण्ड के इस ऐतिहासिक मेले का इतिहास सदियों पुराना है। अगर इस मेले के आयोजन की पृष्ठभूमि की बात करें, तो अंग्रेजों के खिलाफ 30 जून 1855 को हुए 'संथाल हुल' से जुड़ी हुई है। इस क्रांति के दौरान, संतालों के नेता सिद्धू-कान्हू एवं चांद-भैरव की शहादत हो गई थी। जिससे पूरा संथाल परगना आक्रोशित हो गया था। इससे क्षेत्र की शांति एवं प्रशासनिक व्यवस्था चरमरा गई थी। उस वक्त अंग्रेजों का अत्याचार एवं शोषण, संथाल परगना में चरम स्तर पर था। संथाल जनजाति का विद्रोह, अंग्रेज शासन के लिए एक बड़ी समस्या उत्पन्न कर रही थी। इसके साथ ही संथालो का, अंग्रेजी हुकूमत के प्रति आक्रोश, घृणा एवं रोष काफी बढ़ गया था। क्षेत्र की शांति एवं स्थिर शासन के लिए संथालों एवं अंग्रेजी हुकूमत के बीच, शांति एवं सामंजस्य की स्थापना अति आवश्यक हो गई थी। इसलिए, एक लंबे अरसे से चले आ रहे है, इस आक्रोश को पाटने के लिए, ‘जॉन रॉबर्ट कैस्टर्स’ के द्वारा 3 फरवरी 1890 ईo को इस मेले का आयोजन प्रारंभ किया गया।
संथालोंं के सोहराय पर्व के बाद, 7 दिनों तक मनाया जाने वाला, यह दुमका का सबसे बड़ा मेला है। इस मेले के आयोजन की संपूर्ण जिम्मेदारी, दुमका जिला-प्रशासन की होती है। इस मेले के अध्यक्ष, स्वयं दुमका के डिप्टी कमिश्नर होते हैं एवं सचिव, जिला अनुमंडल पदाधिकारी होते हैं। इस हिजले मेले का, 133 सालों का एक लंबा इतिहास रहा है। मेले का आयोजन हर वर्ष मयूराक्षी नदी के तट पर, हिजला नामक ग्राम के, 'हिजला पहाड़ी' की तलहटी में होता चला आ रहा था। परंतु, कोरोना की वजह से वर्ष 2021 एवं 2022 में, इस मेले का आयोजन नहीं हो पाया।
इस मेले का सर्वप्रथम आयोजन, तत्कालीन जिलाधिकारी, ‘जॉन रॉबर्ट कैस्टर्स’ ने कराया था। सन 1975 ईo में, संथाल परगना के तत्कालीन आयुक्त, “श्री जी. आर पटवर्धन” ने हिजला मेले के आगे, जनजाति शब्द को जुड़वाया। झारखण्ड सरकार ने इस मेले को सन 2000 ईo से एक महोत्सव के रूप में मनाने का निर्णय लिया था और साल 2015 में इस मेले को, “राजकीय मेला” घोषित किया। तत्पश्चात इस मेले का नामकरण, “राजकीय जनजातीय हिजला मेला महोत्सव” हो गया।
कहा जाता है कि, ब्रिटिश प्रशासन मेले के आयोजन को लेकर, क्षेत्र के ग्राम-प्रधान और मांझी-परगनैत के साथ एक बैठक आयोजित कर, विचार विमर्श करते थे। और बैठक के बाद बनने वाले नियमावाली को, अंग्रेजों के द्वारा ‘हिज लॉ’ कहा गया। जो बाद में चलकर धीरे-धीरे हिजला के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यहाँ हिजला का अर्थ हिज-लॉज से है। परंतु, एक और मान्यता यह भी है कि, इस स्थान पर हिजला नामक एक गांव बसा हुआ है। और संभवत: इसी गांव के नाम पर, इस मेले का नाम हिजला पड़ा होगा।
संथाल जनजातियों के दिलों में, यह हिजला मेला एक विशेष स्थान रखता है। और इसके पीछे, एक पौराणिक कथा चली आ रही है। ऐसा कहा जाता है कि, इस मेला परिसर में एक विशाल साल का वृक्ष हुआ करता था। जिसके नीचे बैठ कर, क्षेत्र के ग्राम-प्रधान और मांझी-परगनैत, धार्मिक अनुष्ठान एवं विभिन्न मुद्दों पर आम सभा का आयोजन किया करते थे। और ब्रिटिश हुकूमत को ऐसा प्रतीत होता था कि, ये आदिवासी लोग यहाँ आम-सभा कर, ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ बगावत एवं विद्रोह के लिए सभा का आयोजन करते हैं। इसलिए एक अंग्रेज अधिकारी ने इस पेड़ को तने से काटने का आदेश दिया और उस पेड़ को कटवा दिया।
जब ग्रामीण आदिवासियों को इस बात की खबर हुई, तो वे सभी बड़ी संख्या में उस कटे हुए तने के पास आए और देखते हैं कि, उस कटे हुए तने के पेड़ से, अश्रु के रूप में खून की एक धारा प्रवाहित हो रही है। यह देखकर उन्हें बहुत दुःख हुआ। और यह बचा हुआ तना, बाद में एक पत्थर के रूप में प्रवर्तित हो गया। दुर्भाग्यवश से उसी वर्ष इस क्षेत्र में भीषण अकाल भी आया। इस घटना को वहाँ के आदिवासी ईश्वरीय प्रकोप समझने लगे।
बाद में, जब अंग्रेजों को इस पेड़ के महत्व के बारे में बताया गया। तब अंग्रेज अधिकारी स्वयं इस घटना को देखने आये और पाया कि, पूरा संथाल समाज, उस वृक्ष के कट जाने से, घोर शोक की लहर में डूबा हुआ है। इस तरह उन अंग्रेज़ों का दिल भी इस शोक की लहर को देख कर द्रवित हो उठा। और उन्हें अपनी गलती का अहसास होता है। तत्पश्चात अंग्रेज अधिकारी के द्वारा तत्काल एक आदेश जारी होता है कि, “हर वर्ष यहाँ एक मेले का आयोजन किया जाएगा एवं इस क्षेत्र के सुख-समृद्धि के लिए, संथालों को धार्मिक अनुष्ठान एवं सभा आयोजित करने की अनुमति प्रदान की जाती है”। इस प्रकार इस पूजा एवं सभा स्थल के चारों ओर धीरे-धीरे एक मेले का आयोजन आरंभ हुआ। आज भी, संथाली श्रद्धालुओं के लिए यह स्थल धार्मिक दृष्टिकोण से, उनके दिलों में पवित्र स्थान के रूप में विद्यमान है। जहाँ हर वर्ष, संथाल समाज के लोग अपने पूर्वजों के शहादत को याद करते हुए पूजा-पाठ करते चले आ रहे हैं। इस स्थल को आदिवासी संथाल समाज, “हिजला मरंगबुरू थान” के रूप में जानते हैं।
हिजला मेला विविधताओं से परिपूर्ण है, जहाँ हमें जिला-प्रशासन के द्वारा, भिन्न-भिन्न कला मंचों में आयोजित विभिन्न प्रतियोगिताएं, ऐतिहासिक प्रदर्शनी, सांस्कृतिक कार्यक्रम, नुक्कड़-नाटक, खेलकूद, वाद-विवाद, नृत्य-संगीत, सांस्कृतिक संध्या, निबंध लेखन, चित्रकला प्रतियोगिता, कवि-संगोष्ठी, फैशन-शो, विभिन्न नाटकों का मंचन आदि कर मनोरंजन-वर्धक एवं ज्ञानवर्धक कार्यक्रमों का सफलतापूर्वक आयोजन किया जाता रहा है। इस मेले में, मयूराक्षी नदी की जलधारा, संगीत की एक अलग धुन, वातावरण में बिखेरती है। जो आदिवासियों के नृत्य-संगीत एवं वाद्य-यंत्रों के ध्वनि के साथ मिलकर, वातावरण को और भी खुशनुमा एवं संगीतमय बनाती है।
इस बार के मेले की कुछ विशिष्ट बातें : -
मेले के भीतरी कला मंच में आयोजित, सिद्धू-कान्हू ओपेरा नाइट धमाका की धूम से, सभी दर्शक मंत्र-मुग्ध हो गए थे।
चांद-भैरव मुर्मू अस्थाई कला मंच पर पारंपरिक नृत्य प्रतियोगिता का आयोजन किया गया, जिसमें विभिन्न ग्रुप के प्रतिभागियों के साथ-साथ स्कूल और कॉलेजों के बच्चों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।
फूलो-झानो मुर्मू कला मंच में, दुमका जिले से आए विभिन्न स्कूल-कॉलेजों के विधार्थी, क्विज प्रतियोगिता में सम्मिलित होने के लिए भारी संख्या में पहुंचे थे।
झारखण्ड शिक्षा परियोजना, दुमका के द्वारा आयोजित भाषण-प्रतियोगिता, जिसका थीम, "आजादी के आंदोलन में जनजातीय नायकों एवं नायिकाओं की भूमिका" पर छात्र-छात्राओं ने उत्साहपूर्वक भागीदारी दिखाई।
निबंध लेखन एवं चित्रकला प्रतियोगिता का विषय, “जनजातीय त्यौहार एवं जल संरक्षण” जैसे महत्वपूर्ण विषय पर था।
कृषि विभाग द्वारा किसान मेला सह कृषि प्रदर्शनी का आयोजन किया गया था, जो अंतर्राष्ट्रीय मिलेट वर्ष 2023, को प्राथमिकता देते हुए, इसके उत्पादन और व्यापार को बढ़ावा दे रहे थे।
मेले का मुख्य आकर्षण, लुप्त होती चदर-बदौनी (चदर-बदर) परंपरागत आदिवासी कठपुतली डांस थी, जिसे मेले परिसर के विभिन्न जगहों पर जनमत शोध संस्थान, दुमका की मंडली के द्वारा प्रदर्शित किया जा रहा था।
मेला हमेशा से ही लोगों को आपस में जोड़े रखने एवं एक सामाजिक सूत्र में बांधने का काम करता आया है। प्राचीन काल से ही मेले में लोग एक दूसरे की खैरियत जानने एवं वस्तुओं के विनिमय के लिए एकत्रित होते आए हैं। यह मेला भी संथाल समाज को एक सूत्र में बांधने का काम, बखूबी कर रही है। इसके साथ ही, इस मेले के माध्यम से लोग अपनी सांस्कृतिक विरासत एवं अपनी विशिष्ट पहचान को बरकरार रखे हुए हैं। राज्य-सरकार का भी, यहाँ योगदान प्रशंसनीय है। सरकार मेले के माध्यम से, नई तकनीकों एवं योजनाओं को, यहाँ की जनजातियों को अवगत कराने के लिए अच्छा मंच तैयार करती है। इस क्षेत्र के आदिवासियों के साथ सीधा-संपर्क का एक महत्वपूर्ण आधार, यह हिजला मेला ही प्रदान करता है। उम्मीद है कि, झारखण्डवासी तथा झारखण्ड सरकार के प्रयास से, इस जनजातीय हिजला मेला को, एक अंतरराष्ट्रीय मेला का दर्जा जल्द ही हासिल हो एवं राज्य सरकार और स्थानीय लोगों के सहयोग से, इसकी भव्यता दिन-गुनी रात-चौगुनी बढ़ती रहे।
इस मेले का समापन बड़े ही शानदार अंदाज में किया गया। जिसमें, झारखण्ड के प्रसिद्ध नृत्य पाइका एवं पद्मश्री से सम्मानित श्री मुकुंद नायक एवं उनके दल के द्वारा गाए गीत और मयूराक्षी नदी की जलधारा की आवाज, धीरे-धीरे मेले को समापन की ओर बढ़ा रही थी। अंततः मयूराक्षी नदी के तट पर आसमान में फूटते पटाखें और आतिशबाजीयों की रंगीन रोशनी, मेले परिसर को रंगों के आवरण के साथ मेले को समाप्त करती हैं।
लेखक परिचय : रांची के रहने वाले मनोज कुजूर, लोक-साहित्य (folklore) में, सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ झारखण्ड से स्नातकोत्तर किए हैं। वह आदिवासी परंपरा एवम संस्कृति के प्रति विशेष रुचि रखते हैं, साथ ही झारखण्ड के लोक-साहित्य को, लोगों तक पहुंचाने के लिए निरंतर प्रयासरत रहते हैं।
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