अंग्रेज़ी में एक कहावत है - इट मैटर्ज़ हू स्पीक्स फ़ोर यू? यह महत्वपूर्ण है कि आपकी ‘आवाज़' कौन बनता है। हाल के दशक में एक अवधारणा बहुत तेज़ी से विकसित हुई है और मानवशास्त्र में इसे हम 'नेटिव राइटर्स' या देशज लेखक या स्व-लेखनी कहते हैं। जब दिल्ली विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा के लिए गया था तब मुझसे प्रश्न किया गया था, कि मानवशास्त्र ही क्यों? मैंने जवाब दिया था कि मैं अपने आदिवासी समाज का स्वयं अध्ययन एक ‘इन्साइडर' के रूप में करना चाहता हूँ। मुझे एहसास होता था कि हमारे बारे में जो बातें लिखीं या चर्चा की जाती हैं वह अनेक बार धरातल से अलग होतीं हैं। किसी समाज को समझना है तो उनके दृष्टिकोण से ही चीजों को समझना बेहतर होता है। दूसरा कि 'मैं या हम कौन हैं', यह हमेशा से मुझे कोई और बताता आया है।
एक आदिवासी या अनुसूचित जनजाति की परिभाषा सदियों से कोई और बता रहा है। हम वास्तव में क्या हैं और कौन हैं, कोई सुनना नहीं चाहता और स्वयं आदिवासी समाज भी इसके प्रति उदासीन है। विडंबना यह है कि हम स्वयं को उस परिभाषा के अनुरूप, उस खाने में स्थापित करने का प्रयास निरंतर करते रहते हैं। इसलिए यह आश्चर्य का विषय नहीं है कि भारतीय संविधान में भी आदिवासी की कोई परिभाषा नहीं है और हमारे लिये जो संवैधानिक प्रावधान हैं वह अनेक जगह अस्पष्ट हैं। कभी संविधान को पढ़ने का प्रयास कीजिएगा, अनुच्छेद की संख्या के अलावा उनमें निहित भाव और अर्थ अत्यंत कठिन या अस्पष्ट लगते हैं। उदाहरण के लिए पाँचवीं अनुसूची के प्रावधान या फिर पेसा क़ानून को ही देख लीजिए। यहाँ मैं यह भी स्पष्टीकरण दे दूँ कि हो सकता है कि यह मेरी बौद्धिक समझ की कमी के कारण ऐसा हो रहा हो।
सदियों पहले आदिवासी समाज पर लेखन की शुरुआत हुई थी। प्रारंभिक काल में आदिवासी जीवन शैली कौतूहल का विषय था। एक ऐसी जीवन शैली जो मुख्यधारा की समाज से बिलकुल भिन्न थी और सदियों तक इसे असभ्य माना गया। अनेक लेखकों के यात्रा वृतांत एवं आदिवासी समुदाय के अल्प समय के सानिध्य से आदिवासी समुदाय के विचित्र सांस्कृतिक प्रक्रियाएँ, रोचक घटनाएँ, विचित्र सामाजिक संगठन, वेश भूषा इत्यादि को अतिशयोक्ति के साथ वृहद् समाज के समक्ष प्रस्तुत किया गया। यह छवि आज भी मिटी नहीं है। और जिनके बारे में लिखा गया या तो वो अनभिज्ञ थे या उन्हें इसके भविष्य के प्रभाव के विषय में कोई अंदेशा नहीं था।
एक बहुत प्रचलित अफ़्रीकी कहावत है- “जब तक बाघ लिखना नहीं सीखेगा तब तक हर कहानी शिकारी की ही महिमा गाएगी”। इसका अर्थ यह हुआ कि जब तक आप लिखेंगे नहीं, तो आपका इतिहास या आपके बारे में कोई भी अन्य एकतरफ़ा चित्रण कर सकता है, लिख सकता है। और आप उस गाथा में मात्र मूक दर्शक बने रहेंगे। जैसा कि इस कहानी में एक मारे गये बाघ की चर्चा है जिसने शायद एक ज़बरदस्त प्रतिरोध किया हो, किंतु उसका उल्लेख आपको कहीं नहीं मिलेगा। मरे हुए बाघ की प्रतिरोध गाथा कोई नहीं लिखता।
उपरोक्त कथन गंभीर चिंतन का विषय है।आदिवासी समाज का अध्ययन अंग्रेजों के लिए प्रशासनिक आवश्यकता थी। भारत के मूल निवासियों के विषय में अनेकों ने अपनी कृतियों की रचना की। सन् 1820 से शुरुआत कैंपबेल की रचना से हुई, फिर हेमिल्टन, एडवर्ड डाल्टन, हरबर्ट रिसले, फ़रदीनन्द हान, हॉफ़मैन, क्लेमेंट इत्यादि तक ये चलता चला गया और आज आदिवासियों की मौखिक परंपरा को इन कृतियों ने बैसाखी प्रदान की है। इन महानुभावों ने जो लिखा उसका सत्यापन कठिन है। और आज भी हम अपने शोध की शुरुआत इन्हीं कृतियों से संदर्भ लेकर करते हैं। लेकिन वर्तमान में जिस प्रकार आदिवासी जीवन दर्शन, इतिहास और रचनाएँ आ रहीं है उनका सत्यापन संभव है और अनेक रचनाओं में ऐसी बातें होती हैं, जिसका प्रतिरोध होना चाहिए।
वृहद् समाज आपको अपने अंदर समाहित करने के लिए लालायित है। वृहद् समाज अपने लिखित साक्ष्यों और ग्रंथों के आधार पर हमें अपने अंदर समाहित करने का प्रयास सदियों से कर रहा है। ऐसा दिखाया जाता है कि यदि वृहद् समाज नहीं होता तो आदिवासियों का क्या होता। हमारी पहचान और अस्तित्व को हमेशा वृहद् संस्कृति का एक अदना सा भाग दिखाया जाता है। ऐसे में हमें यह प्रश्न स्वयं से और वृहद् समाज से करना चाहिए कि क्या हमारी स्वतंत्र पहचान और अस्तित्व नहीं है? पीड़ा तब और बढ़ जाती है जब हमारे ही आदिवासी समुदाय इस सानिध्य को बड़े गौरव के साथ आत्मसात करती हैं। और हम साढ़े दस करोड़ मूक बने रहते हैं। ऐसे में यह आवश्यक है कि आपको लिखना चाहिए। बोलना चाहिए। पढ़ना चाहिए। जब तक हम स्वयं अपनी व्यथा नहीं बोलेंगे, नहीं लिखेंगे, तो यह निरंतर चलता रहेगा। इसलिए आपको लिखना चाहिए।
हमारी मौखिक परंपरा रही है। और वर्तमान बुजुर्ग पीढ़ी के बाद यह समृद्ध ज्ञान भंडार एकदम से मृत हो जाएगी। इसलिए भी यह अति आवश्यक हो जाता है कि आप पढ़ें और लिखें। पढ़ने का तात्पर्य यहाँ मात्र पुस्तकों तक सीमित नहीं है। अपनी मौखिक परंपरा, रीति रिवाज, देशज ज्ञान, जीवन शैली को समझें और पढ़ें। तार्किक संवाद के बाद आप अपने समाज के बारे में लिखें। लेकिन यह जितना आसान प्रतीत होता है, उतना होता नहीं है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि आप जिस समाज में पले बढ़ें हैं वह आपके रोज़मर्रा जीवन का हिस्सा है। स्वयं के समाज के बारे में लिखना कठिन होता है। आपको सभी चीज़ें सामान्य नज़र आती हैं। गहन अवलोकन और अपने अंदर, तथ्यों को लेकर सवाल उठाने की कला को विकसित करना होगा। और यह एक दिन में नहीं आएगा, इसके लिए आपको सतत अभ्यास करना होगा। अनुसंधान इतना आसान नहीं, लेकिन फिर भी आपको यह बीड़ा उठाना होगा। क्योंकि आप नहीं लिखेंगे तो कोई और लिखेगा। और यदि कुछ अनर्थ लिखा जाएगा तो वह अनंत काल तक दर्ज होंगी। आप तो विरोध भी दर्ज नहीं करते हैं। एक नेटिव राइटर का निष्पक्ष बने रहना भी कड़ी चुनौती है।
ऐसा नहीं है कि आदिवासी समाज में चिंतक या लेखक नहीं हैं। जो हैं वे उम्दा हैं। किंतु ये गिने चुने ही हुए हैं। हाल के दशकों में अनेक आदिवासी युवा, लेखनी में आगे आ रहे हैं। किंतु सामान्यतः अनुसंधान आधारित लेखनी में तथ्यात्मक और नवीन विचारों की कमी दिखाई पड़ती है। आदिवासी समुदाय में भी परिवर्तन आया है जिसकी चर्चा मैंने ऊपर की है, तो फिर आपके रिसर्च में वही आदिवासी क्या खाता है, क्या पीता है इत्यादि तक सीमित क्यों होता है? समाज में परिवर्तन आया है तो नयी चुनौतियाँ भी आयीं हैं। और ये हमारा ही दायित्व है कि नवीन दृष्टिकोण से इन चुनौतियाँ पर लिखा जाए।
अनेक ग़ैर आदिवासी लेखक भी आदिवासी समुदाय के मर्म को समझते हैं। अच्छा लिखते भी हैं। आदिवासी समुदाय को उनका भी सम्मान और आभार प्रकट करना चाहिए। हाल के दशकों में जो नयी चुनौतियाँ आयीं हैं, उनके बारे लिखने में अब वो हिचकिचाते हैं। क्योंकि हमारा समाज पूर्वाग्रह से बहुत जल्दी प्रभावित होता है। बात और तथ्य सही हो, तब भी यदि यह “उन्होंने” लिखा है तो क्या और क्यों लिखा है, उस से पहले “कैसे लिख दिया” सामने आ जाती है। अन्य लोगों में असहजता है कि आदिवासी समाज उन्हें ग़लत ना समझ ले। लेखनी मात्र पुस्तकों के अध्ययन से नहीं होता है, यह आपने प्रतिदिन के अनुभव पर भी आधारित होती है। लेखनी और चिंतन एक समग्र प्रक्रिया है। चिंतन और अध्ययन सबका करें, लेकिन स्वयं अवश्य लिखने का प्रयास करें।
लेखनी होगी तभी आपका इतिहास होगा। यदि नहीं, तो इतिहास तो फिर भी होगा लेकिन कहानी ऐसी होगी कि आपकी आने वाली पीढ़ी बता नहीं सकेगी कि ‘आदिवासी समाज में मछली हवा में कैसे तैरती थीं’। लिखेंगे नहीं, तो आज की युवा पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी, “इस्कूल के टेम पे…..” को ही अपना पारंपरिक गीत मानेगी।
लेखक परिचय :- डॉ अभय सागर मिंज वर्तमान में 14 साल के शिक्षण अनुभव के साथ डीएसपीएम विश्वविद्यालय (पूर्व में रांची कॉलेज रांची) के मानवशास्त्र विभाग में सहायक प्राध्यापक हैं। उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा रांची से प्राप्त की एवं दिल्ली विश्वविद्यालय से मानवशास्त्र में एम.एस.सी किया। उन्होंने राँची विश्वविद्यालय राँची से झारखंड से आदिवासी पलायन पर अपनी मानद उपाधि अर्जित की है। उनके प्रमुख कार्य क्षेत्रों में आदिवासी अधिकार, संस्कृति और स्वदेशी भाषा संरक्षण संवर्धन शामिल है। वर्तमान में वह डीएसपीएम विश्वविद्यालय में स्थित लुप्तप्राय देशज भाषाओं और संस्कृतियों के अंतर्राष्ट्रीय प्रलेखन केंद्र के निदेशक हैं। वह ICCA कंसोर्टियम, जिनेवा में मानद सदस्य के साथ-साथ YFEED नेपाल में अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ सलाहकार और फिलीपींस के AYIPN में भी सलाहकार हैं। वह WUJA संगठन, लक्ज़मबर्ग में यंग एलुमनी भी हैं।
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