पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित
रबी फसल की खेती ठंड के महीनों में की जाती है। चूँकि, उस समय वर्षा कम होती है और इनके पकने का समय गर्मी में होता है। जो की फरवरी व मार्च माह में अच्छे से पक जाते हैं। उदाहरण के लिए तिवरा, गेंहू, चना की खेती रबी फसल के रूप में की जाती हैं। तिवरा के बुवाई के समय, धान का फसल अधिक हो चुका होता है। तिवरा उस समय बोई जाती है, जब खेतों पर ज्यादा पानी नहीं होता है। क्योंकि, ज्यादा पानी होने से तिवरा का बीज सड़ जाता है। जिससे किसानों को बहुत ज्यादा नुकसान हो जाता है।
तिवरा की खेती किस प्रकार की जाती है?
पहले तिवरा को पानी में रात भर भिगो कर रखे रहते हैं। फिर, उसे सुबह खेत में छिड़काव कर देते हैं और कुछ महीनों बाद, इसके पत्ती हरे-भरे हो जाते हैं। इन पत्तियों को भाजी के रूप में उपयोग किया जाता है। इसके भाजी को सुखाकर, रखे रहते हैं। जब आदिवासीयों के घरों में, गर्मी के दिनों में सब्जी की कमी होती है। तो, तिवरा के भाजी की सब्जी बनकर खाया जाता है। और इसे छत्तीसगढ़ की प्रसिद्ध भाजी मानी जाती है। जो की बहुत लाभदायक होती है।
जब भाजी फूल जाता है और कुछ सप्ताह बाद फलने लागता है। इसके फल अच्छे तरह से तैयार हो जाते हैं और इसके फल को आदिवासी समुदाय बाँटकर खाते हैं। और इसके फल को तोड़ कर, बाजार या गांव-गांव बेचने को ले जाते हैं। इसमें से कुछ लोगों का जीवन-यापन हो जाता है। इसके फल को भूंज कर भी खाया जाता है। जिसे, यहाँ ‘होरा’ कहा जाता है। तिवरा को पेरा के साथ भूंजा जाता है। जिसे घर के सभी लोग एक साथ बैठ कर खाते हैं। होरा को 50 रूपये किलो में बेचा जाता है।
होरा बहुत स्वादिष्ट होता है। जब खेत में तिवरा, पूरी तरह से तैयार हो जाता है। तब घर के सभी लोग, उसे उगाने या निदाने को चले जाते हैं। फिर, निदा कर घर लाया जाता है। जिसे घर के आँगन या कोठार में रखा जाता है, और कुछ सप्ताह बाद यह सुख जाता है।
तिवरा के सुख जाने के बाद, उसे बैल के सहारे, बैल को दावरी फांदकर, उसका मिसाई किया जाता है। कुछ लोग सूखे हुए तिवरा को डंडा से पीट-पीटकर, उसके बीज को निकालते हैं। मिसाई की जाने के बाद, उसे पंखे के हवा से उड़ाया जाता है। जब उस समय के लोगों के पास पंखा नही था। तो, पहले हाथ में उसे इकठ्ठा करते थे। फिर सुबह उठ कर, जब हवा चलता रहता था, तो उसे उड़ाते थे।
तिवरा, दलहन के रूप में फसलों में प्रमुख है। चूँकि, इसमें अन्य दालों से ज्यादा प्रोटीन होती है। इसलिए, इसके दाल को बेसन के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। ईश्वरी कंवर जो की ग्राम पंचायत डोंगरी के निवासी हैं। इनका कहना है कि, हर साल अच्छी फसल होती थी। जिससे कि, चार-पांच बोरा तिवरा हो जाते थे। लेकिन, इस साल ख़राब मौसम के कारण अच्छी फसल नहीं हुयी। इस कारण किसान लोग बहुत परेशान हैं।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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