पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित
छत्तीसगढ़ की दक्षिण दिशा में स्थित, कांकेर जिला से लगभग 50 किलोमीटर दूर, सुंदर हरे-भरे पेड़-पौधों के बीच, एक छोटा सा गांव है, जिसे लोग कभी, दल्लीझरन के नाम से जानते थे और अब इसका नाम “हर-हर पानी” कर दिया गया है। इस पर लोग कहते हैं कि, यहां पर वर्षभर हरियाली छाई रहती थी। इस कारण से, इस जगह का नाम ‘हर-हर पानी’ रखा गया।
वर्षों पूर्व, इस जगह पर, घने जंगल और बड़े-बड़े घास के दलदल हुआ करते थे। इस घने जंगल में, लोग शिकार करने आते थे। लोग शिकार के लिए, जब इस जंगल में आते थे। तब उन्हें, इस जंगल में एक छोटा सा गड्ढा जैसा कुआं मिला था। जिसे यहाँ के लोग, क्षेत्रीय भाषा में, झरन कहते हैं। झरन का अर्थ होता है, जहां पर हमेशा पानी का रिसाव होता हो। जब लोगों को इसके बारे में पता चला की, यहां पर हमेशा पानी रहता है और जानवर भी यहां का पानी, पीने आया करते हैं। क्योंकि, यहां का पानी साफ और मीठा था। इस कारण, लोग भी यहां का पानी पीते थे, और साथ ही यहां का पानी भी ले जाया करते थे। उस समय, पानी की बहुत समस्या थी। लोग दूर-दूर तक पानी की तलाश में जाते थे। लेकिन, जब उन्हें इस जगह के बारे में पता चला। तो, लोग यहां पर आने लगे और यहां पर बस गए। लोगों ने खेती करने के लिए भी, यहां पर जगह बनाया। और धीरे-धीरे यहां पर एक छोटी सी बस्ती बस गई। झरन के पास, आदिवासियों ने एक छोटा सा लकड़ी का कुँआ भी बनाया। जहां का वे पानी पीते थे। वर्तमान में, यहां पर लगभग 50 मकान होंगे, जिसमें केवल आदिवासी समुदाय के लोग ही निवास करते हैं।
चित्र में आप देख सकते हैं कि, जिस झरन के पास, आदिवासीयों ने लकड़ी का कुँआ बनाया था। उसी स्थान पर, अब तलाब बना दिया गया है। जिसका नाम “दल्ली तालाब” है, जो बहुत ही सुंदर है। यहां का वातावरण बहुत ही शांत है। इसके पास ही एक छोटा सा, मां शीतला का मंदिर भी बनाया गया है। यहां के आदिवासी, जब कोई त्यौहार मनाते हैं, तो सबसे पहले इस मंदिर और तालाब की पूजा करते हैं। गांव के सभी लोग, एक साथ मिलकर पूजा करने जाते हैं और अपने संस्कृति के प्रदर्शन में “रेला नृत्य” भी करते हैं। बरसात में, पहले सावन के बाद, आदिवासी, खुशी से इस मंदिर में और तालाब में पूजा करते हैं। ताकि, उस वर्ष की फसल अच्छी हो। लोग इस तालाब की साफ-सफाई के बारे में भी ध्यान देते हैं। पूर्वजों ने भी इस जगह को देवी का स्वरूप माना है और गंदगी होने से रोका है। आज भी इस तालाब में रंग-गुलाल खेल कर, कोई नहाने नहीं जाते। क्योंकि, इस तालाब का लोगों के जीवन में बहुत योगदान है।
यहां के मुखिया बताते हैं कि, “यहां के जो पहले गायता हुआ करते थे। जो यहां पर पूजा करते थे, उनके वंशज, अभी महाराष्ट्र के सीतापुर में रहते हैं। वे भी वर्ष में, एक बार सावन जात्रा की पूजा में जरूर आते हैं।” इस गांव के मुखिया, जो यहां के गायता हैं, जिनका नाम, राम जी कोला है। वे बताते हैं कि, “जो झरन के पास, आदिवासियों ने लकड़ी का कुँआ बनाया है। हमारे पूर्वज, उस जगह को देवी का स्वरूप मानते थे, और उसकी पूजा अर्चना करते थे। इस परंपरा को आज भी निभाते हुए पूजा की जाती है। क्योंकि, इस जगह से, हमें पीने के लिए पानी मिला, जो हमारे लिए जीवनदायिनी है।”
इस प्रकार जल ही जीवन बना। यहां का मीठा पानी ही, आदिवासियों के बसने की वजह बनी। जहां पर पानी होता है, वहां पर जीव आते ही हैं। जिस प्रकार, यहां के लोग, तलाब एवं पेड़-पौधे को पूजते हैं। इससे पता चलता है कि, आदिवासी शुरू से ही प्राकृतिक के पुजारी रहे हैं। वे लोग प्रकृति को ही अपना “इष्ट देवता” मानते हैं और उसकी पूजा करते हैं।
बढ़ती जनसंख्या के कारण, अब यहां के घने जंगल, धीरे-धीरे कम होते जा रहे हैं। लोग अपने खेती के लिए, जगह बना रहे हैं और पेड़ों को काट रहे हैं। जो यहां की हरी-भरी सुंदरता को नष्ट कर रहे हैं। पहले यह जगह बहुत ही सुंदर और हमेशा हरा-भरा रहता था।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
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