पंकज बांकिरा द्वारा सम्पादित
आप सभी खाना बनाने के लिए पानी का उपयोग तो करते ही हैं। लेकिन, इस गांव के आदिवासी, दाल बनाने के लिए, इस कुँए का पानी ही उपयोग करते हैं। क्योंकि, इस कुँए के पानी से दाल की सब्जी अच्छी बनती है। डोंगरी गांव के लोगों का मानना है कि, तिवरा दाल को पकाने के लिए, इस कुँए का पानी बहुत उपयोगी है, जो इस दाल को अच्छी तरह से पकाता है। क्योंकि, यह दाल आसानी से नहीं पकती है। तिवरा को, दाल के साथ-साथ और कई तरीके से, इसकी सब्जी बनाई जाती है। और यह फसल ठंड के समय होती है।

छत्तीसगढ़ के सभी इलाकों में, धान को छोड़कर, बाकी अन्य चीजें जैसे दलहन, तिलहन आदि अलग-अलग जगहों पर, मिट्टी के अनुरूप फसल लगाया जाता है। छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले में भी अधिकतर धान के साथ-साथ हिरवा, उड़द, रहर, मसूर और तिवरा बोया जाता है। तिवरा दाल, धान के साथ लगाया जाता है। जब धान के खेत का पानी, कम बचा रहता है। ऐसी स्थिति में तिवरा को बोया जाता है। फिर, इसे धान की फसल कटने के बाद, हल्की ठंडी और गर्मी के समय, इसकी निदाई की जाती है। इस फसल को गीली (नमी) खेतों में लगाया जाता है। जिसे, स्थानीय आदिवासी अपनी भाषा में, बहरा और झोरखी खेत बोलते हैं। जिसमें, अन्य खेतों की अपेक्षा अधिक धान होती है। तिवरा दाल की फसल को, अधिकतर कन्हार मिट्टी वाले क्षेत्रों में बोया जाता है। इस फसल को दोबारा पानी की जरूरत नहीं पड़ती है। ये उसी नमी में ही हो जाती है, जो धान के साथ होती है। जिससे दो फसल एक साथ मिल जाते हैं। लेकिन, इसको अलग-अलग समय में कटाई और मिसाई करते हैं।

तिवरा एक ऐसा दलहन है, जिसकी सभी चीजें उपयोग की जाती हैं। जब धान की कटाई होती है, उसके पहले ही तिवरा को बोने के बाद, धान की कटाई की जाती है। धान के कटाई के बाद, जब तिवरा के पौधे हरे-भरे दिखाई देते हैं। उस समय, तिवरा भाजी को लोग बहुत पसंद करते हैं। इस भाजी की बाजार में अच्छी कीमत होती है। इसकी भाजी के साथ-साथ फल को भी सब्जी बना कर खाते हैं। जिसे स्थानीय आदिवासी अपनी भाषा में ‘बटकर’ कहते हैं।
बटकर को भाटा (बैंगन) के साथ सब्जी बनाकर खाने से, यह सब्जी बहुत अच्छी लगती है। और इसके अलावा, तिवरा के होरा को भून कर भी खाते हैं। इसके होरा को, लोग बहुत ज्यादा पसंद करते हैं। तिवरा के सुख जाने के बाद, इसकी निदाई करने में बहुत दिक्कत होता है। इसलिए, कोशिश यही करते हैं कि, निदाई थोड़ी जल्दी करें। लेकिन, उसके फल सुख चुके होने चाहिए, नहीं तो दाल अच्छे से नहीं पकती है। इस तिवरा की मिसाई करने के बाद, जो सूखा भूसा बचता है, उसे बैलों को खिलाते हैं। जिनके पास ये भूसा, आवश्यकता से अधिक होती है, वे लोग इसे बेच देते हैं। जिससे, उन्हें पैसे मिल जाते हैं।

ग्राम डोंगरी के राधा बाई का कहना है कि, “पहले, यहाँ होने वाली तिवरा, जिसकी दाल खाने, लोग दूसरे गांव से खरीदने आते थे। क्योंकि, यहाँ की दाल, इस गांव के आसपास के गाँवों से अच्छी होती थी। चूँकि, यहाँ की दाल बहुत अच्छे से पक जाती थी। लेकिन, यदि बात करें, उसी के पास 5 किलोमीटर की दूरी में बसे मोहनपुर गांव, जहाँ की तिवरा दाल, यहाँ की दाल जैसी नहीं पकता था। लेकिन, अब तो पहले की तरह, तिवरा दाल को बहुत कम लोग खाते हैं। क्योंकि, अब तो दुकान से मिलने वाली, रहर दाल, जो सभी के लिए अच्छी होती है। और तिवरा दाल अच्छे से नहीं पकती है। ग्राम डोंगरी के अधिकतर लोगों का मानना है कि, तिवरा दाल का, न गलने का कारण, यहां का पानी है। इसलिए, जो लोग तिवरा दाल बनाते हैं। वे यहाँ के तालाब में बने कुएं का पानी का उपयोग, सिर्फ इस दाल को बनाने में करते हैं। पूर्व में शादी और छठी जैसे कार्यक्रम में, इसी दाल की सब्जी बनाते थे। लेकिन, अब तो समय पूरा बदल गया है। अब इस दाल को, किसी विशेष कार्यक्रम में, बहुत कम ही बनाते हैं। अब लोग केवल होरा और कच्चे तिवरा की सब्जी बना कर खाना ज्यादा पसंद करते हैं।”
तिवरा दाल, किसी के लिए अच्छा है, तो किसी को बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचा सकता है। अगर, यह दाल अच्छे से नहीं पकी होती है, तो इसको खाने से बहुत लोगों का पेट खराब हो जाता है। जिससे उन्हें पेचिश पकड़ लेता है और उनकी तबीयत बिगड़ने लगती है।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।
Comments