“पता नहीं यह समस्या कितने सालों से चली आ रही है और कितने सालों तक रहेगी।”
ये है कोर्रा बेड़ा गाँव की दास्तां। ओडिशा में स्थित ये गाँव छत्तीसगढ़ से केवल 60 किलोमीटर की दूरी पर है। यहां आदिवासियों की घनी आबादी है। यहां के आदिवासियों की बड़ी दिक्कत है कि कोई भी सरकारी योजना का फ़ायदा इन तक नहीं पहुँचता।
कोर्रा बेड़ा के आदिवासियों से पूछने से पता चला कि उड़ीसा सरकार तो बहुत स्कीम निकालती है। ये नेताओं के बड़े आश्वासन है, लेकिन इसे लागू करने पर ध्यान नहीं देते।
प्रधानमंत्री आवास योजना
उदाहरण के तौर पर आवास सम्बंधित जो योजनाएं हैं, जैसे इंदिरा आवास योजना, इसे अब प्रधान मंत्री आवास योजना के नाम से जाना जाता है, जो ग्रामीण क्षेत्रों में गरीब परिवारों को घर बनाने के लिए पैसे देता है। इस योजना से गांववासी काफी उत्साहित थे, लेकिन योजना के तहत उन्हें शायद ही कोई लाभ मिला है। केवल कुछ ही लोगों के घर पूरे बन पाए। लेकिन ज्यादातर घरों की मंजूरी नहीं मिली या काम अधूरा छोड़ दिया गया।
गांव वासी बताते हैं कि बीच के कर्मचारियों ने पैसे खा लिए। घर बनाने की प्रक्रिया तो शुरू होती, लेकिन बीच में ही उसे अपर्याप्त पैसे का हवाला देकर स्थगित कर दिया जाता। लोग अब ना तो अपने पुराने घरों में रह सकते और ना ही अधूरे नए घर में। जिस सरकारी आवास योजना ने उन्हें घर देने का वादा किया था, उसी ने उन्हें बेघर कर दिया है।
बत्ती गुल
जहां हम भारत को “डिजिटल इंडिया” बनाने में गर्व लेते हैं, वहीं इस आदिवासी गांव की सच्चाई है कि यहां बिजली तक की बुनियादी सुविधा नहीं पहुंची है। कुछ साल पहले यहां बिजली का खंबा लगाया गया था, लेकिन वो अभी तक जैसा के तैसा है। काम आगे नहीं बढ़ा है। सरकार ने सोलर पैनल की भी योजना निकाली थी जिसका काम अभी ठप पड़ा है।
आदिवासी मिट्टी तेल (केरोसिन) से चिमनी जलाकर रात के अंधेरे को काटते हैं। बिजली ना होने के कारण यहां ना मोबाइल चलता है ना इंटरनेट।
कर्मचारियों की बेईमानी को देखकर आदिवासियों ने चीज़ों को अपने ही हाथों में लेने को सोचा। फिर गांववासियों से पैसे जुटाकर कोर्रा बेड़ा में एक जेनरेटर खरीदा गया। जब गरीब ग्रामीण लोग 65,000 रुपए इकठ्ठा कर एक जेनरेटर खरीद सकते हैं, तो सरकार इतना ढीलापन क्यों दिखाती है?
इस जेनरेटर का उपयोग सामूहिक कारणों से होता है। इसे कभी किसी की शादी में उपयोग हुआ है, तो किसी के घर के नामांकन में।
ऐसा लगता है कि इस गांव को सरकार ने भुला दिया है। आवास और बिजली की योजनाएं तो फाइलों में धूल इकट्ठा कर ही रही हैं, ऊपर से पानी की योजनाएं भी स्थिर पड़ी हुई है।
हैंडपंप भी नहीं करते काम
पिछले एक साल से हैंडपंप बंद पड़ा हुआ है। लोग नदी से पानी लाकर पीते हैं। पानी लाने में लोगों का ज्यादातर समय लग जाता है। गर्मियों में जब नदियां सुख जाती हैं और बारिश में जब पानी में मिट्टी घुल जाती है तो अपर्याप्त और गंदा पानी मिलता है। इससे जौंडिस जैसी बीमारियां गांव में आम बात सी हो गई है।
ये तो भारत की केवल एक गांव की दुखद कहानी है। ना जाने ऐसे कितने लाखों गाँव है जहां सरकार योजनाएं बनती है, पर फिर उन्हें भूल जाती हैं। शहरी लोगों को लगता है गावों की बहुत उन्नति हो रही है और भारत “महाशक्तिशाली” है।
लेकिन जब तक भारत के हर एक गांव में बिजली, पानी और आवास के मुद्दों को सुलझाया ना जाए, ना ही आदिवासी, और ना ही देश आगे बढ़ेगा। योजनाएँ बनाने में भारत अच्छे नम्बर लाता है, क्योंकि उसके पास हर एक मुसीबत के लिए योजना हैं। लेकिन हम उन योजनाओं को ढीलापन और भ्रष्टाचार से बर्बाद कर देते है। इनको अमल करने के लिए इच्छा शक्ति चाहिए।
लेखक के बारे में: खाम सिंह मांझी छत्तीसगढ़ के रहने वाले हैं। उन्होंने नर्सिंग की पढ़ाई की है और वो अभी अपने गाँव में काम करते हैं। वो आगे जाकर समाज सेवा करना चाहते हैं।
यह लेख पहली बार यूथ की आवाज़ पर प्रकाशित हुआ था
コメント