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Writer's pictureIshwar Kanwar

तालाबंदी में ताजी सब्जियों की कमी झेलने के बाद ग्रामीणों ने अपने वनस्पति उद्यान बनाये


ग्रामीण अब हरी सब्जियों के लिए बाजार पर निर्भर नहीं हैं

क्या आपको याद है कि जब मार्च 25, 2020, को लॉकडाउन लागू किया गया था, तो किसी को भी अपने घरों से निकलने की अनुमति नहीं थी? उस समय, कई लोगों को परिवार को खिलाने के लिए पर्याप्त भोजन खरीदना मुश्किल हो गया। गांवों में बाजार बंद कर दिए गए और जरूरी सामान मिलना मुश्किल हो गया। इस कठिनाई के कारण, आदिवासी गाँवों की कई महिलाओं ने अपने परिवारों की भोजन की माँगों को पूरा करने के लिए अपना वनस्पति बाग लगाना शुरू कर दिया। इसके कारण, आज गांवों में सब्जी उत्पादन बढ़ गया है।

तिहार बाई को तालाबंदी में बहुत सारी परेशानियों का सामना करना पड़ा

आज हम छत्तीसगढ़ के कापू बहरा गाँव आये हैं, जहाँ तिहार बाई से मिले जो यहाँ के मूल निवासी हैं। उनकी उम्र 40 वर्ष है। उन्होंने हमें बताया कि कोरोनाकाल के वजह से उन्हें बहुत सारी परेशानियों का सामना करना पड़ा। उनको उनके घर से बाहर जाना मना था और घर से बाहर न जाने से रोजगार का मिलना मुश्किल था। ऐसी स्थिति में उन्होंने बड़ी धैर्य के साथ कोरोनाकाल के सभी नियमो का पालन करते हुए, उनके पास उपलब्ध काफी कम भोजन में अपना परिवार चलाया। साथ ही साथ उन्होंने अपने बगीचे को एक वनस्पति उद्यान में बदलने का फैसला किया। अब उनके इस बगीचे में हरी सब्जियां और बैंगन मिलता है।


तिहार बाई से मिलने के बाद उसी दिन जब हम वहाँ से बिनझरा गए तो हम फूल बाई महंत से मिले जिनकी उम्र 30 वर्ष है। उन्होंने हमे बताया कि लॉकडाउन के दौरान उनके घर के किसी भी व्यक्ति को बाहर जाना माना था। उस स्थिति में उन्होंने अपने घर मे ही रहकर सब्जी उत्पादन किया क्योंकि लॉकडाउन के दौरान मार्केट नही लग रहा था और रोजगार भी नही मिल रहा था।

फूल बाई अपनी सब्जी की बड़ी को लेकर बहुत खुश हैं

आप सभी जानते हैं कि लॉकडाउन के प्रभावों में से एक प्रभाव ये हैं की कई ग्रामीण थे जो काम करने के लिए बड़े शहरों में चले गए थे, वे वापस लौट आये। ऐसी स्थिति में ,घर में खाली रहने से अच्छा उन्होंने यह निर्णय लिया कि अपने घरों के बाड़ियों में सब्जी उत्पादन करेंगे। आज गाँवों के बडियों में आलू ,पत्तागोभी, फूल गोभी ,लाल भाजी, सरसोभाजी, भाटा, मिर्ची, टमाटर मूली आदि उगाई जाती है। इससे उनको परिवार संचालन और रोजगार की ब्यवस्था हो गयी है। इस मुश्किल घड़ी के पश्चात उन्हें अमूल्य समय का अहसास हुआ और उन्होंने समय का सदुपयोग करना सीखा । इसके अलावा, कई युवाओं ने बेकार खर्चों पर अंकुश लगाना शुरू कर दिया है। क्या आपके गाँव में कोई बदलाव हुआ है? अपना अनुभव कमेंट सेक्शन में लिखें।


यह आलेख आदिवासी आवाज़ प्रोजेक्ट के अंतर्गत मिजेरियोर और प्रयोग समाज सेवी संस्था के सहयोग से तैयार किया गया है।


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